Sunday, 15 September 2013

Garhwali Kavita


धिरज धैर,
त्येरि अर्जी मंजूर होलि, आज न त भोल,
तु बि मसहूर होलि।।

कोसिस त्येरा हथ मा च,
वेमा कसर नि छोड़,
दिन हो या रात,
तु कनु रै उठा-पोड़।
मेहनत सब्यों कन पुडद लाटा, हिटल्यां बल्द हों,
या अणहिटल्यां बोड़,
तू बीज बुतदु रै,
एक दिन फसल भरपूर होलि,
आज न त भोल तु बि मसहूर होलि!!!

बगतै मार से,
घबरै आस न छोड़,
लग्युं रै बाटू,
सीं सांस नि तोड़,
भला दिन जरुर बौडदन लोला, मनै बैमन तू बाटू नि मोड़,
तू जोर लगाणु रै,
सुणे उख जरुर होलि,
आज न त भोल तु बि मसहूर होलि!!!

अंधेरु नि रैणों सदनि ये जहाँन मा, त्येरु बि झंडा उडलु असमान मा, आस-सांस तु बिसरि नि जै,
तेरु बि नौ होलु कबि महानो मा, अधीर नि होण,
मनसा जल्द हि पूरि होलि,
आज न त भोल तु बि मसहूर होलि!!!

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तिल हैगी मूती, सदानी माटु उडाणू रै! कभी माटी मा लिपटी, कभी लपोड़ी! सर जनि ज्वान हव़े, उनि माटी छुडाणू रै!

माँ बाप भी करदिन औलाद कु पालन! शायद बुढापा मा सहारा! जन्मभूमि की भी यनि रैन्द आश! भोल ज्वानी मा सहारा!

सोची कभी कैल, जन्मभूमि की आश! दबी साख्यों की पीड़ा का बारा! त्याग ताप दर्द खुद, माया ममता! अपणा अर अपनी माटी का बारा!

उम्मीद मा दिन देखि देखि, कब बालु ज्वान ह्व़ालू! एक न एक दिन मेरु गुठ्यार मा उज्यालू ल्यालु! मेरी पीड़ा, मेरी गात कु सगत बोझ, तब हटालू! नि छै पता जन्मभूमि थै, एक दिन यू भी परदेशी ही ह्व़ालू!


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ड़ी पुंगड़ी की खैरी सबुन लेखी! द्वी बचन लेख मा, जरा मेरा गम लेखी! बिन्सरा मा सबसे पैली मिन तेरी ददि तेरी माँ की मुखुड़ी देखि!

लाटा द्वी बचन लेख मा जरा मेरा भी लेखी!!!!!

हैंसदी मुखुड़ी छै मेरी भली दांत पाटी! तुमारु पुटुग भोरी मिल सदानी रीटी राटी! आज कना टपगणा आंसू, ज़रा इना भी देखी! लिखदरा जरा कुछ मेरा बारा मा भी लेखी!

लाटा द्वी बचन लेख मा जरा मेरा भी लेखी!!!!!

खेल खेल मा, मै भी घुमाणु रै लाटा तू कभी! ना ज्यूंद, ना म्वरयां मा, अध्म्वरि छौं अभी!

लाटा द्वी बचन लेख मा जरा मेरा भी लेखी!!!!!

आंख्यों सुपिन्या हतगुली उदासी! खितखित हैंसी एजा जू एक, कुछ यनु लेखी! कब मिटेली मेरी खुद, कब घूमली तेरी जन्दरी! कुछ दवे कुछ दारु, एक यनु मलम लेखी! 

लाटा द्वी बचन लेख मा जरा मेरा भी लेखी!!!!!


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एक दिन मेरा मन मा घुसी.. एक भयंकर विचार!
कि बणी जौ मि फिर से ब्योला.. अर फिर साजो मेरी तिबार!
ब्योली हो मेरी छड़छड़ी बान्द.. जून सी मुखडी माँ साज सिंगार!
बीती गे ब्यो का आठ बरस.. जगणा छा फिर उमंग और उलार!

पैली बैठी छौं मैं पालंकी.. पर अब बैठण घोड़ी पकड़ी मूठ!
तब पैरी छौं मैन पिंग्लू धोती कुरता अब की बार सूट बूट!
बामण रखण जवान दगडा ,बुढया रखण घर मा!
दरोल्या रखण काबू मा .. न कार जू दारू की हथ्या-लूट!

मेरी या स्वची चा पैली बिटी.. धरी च बंधी कै गिडाक!
खोळी मा रुप्या बस हजार... नि खपोंण दिमाक!

पैली होई द्वार बाटू ,बहुत हवे छौं टैम कु घाटू!
गौं खोला भरी मा घूमी कै औंण, पूरू कन द्वार बाटू!
रात भर लगलू मंड़ाण तब.. खूब झका-झोर कु!
चतरू दीदा फिर होलू रंगमत घोड़ा रम प्यालू जू!

तब जौला दुया जणा घूमणा को.. मंसूरी का पहाडू मा!
दुया घुमला खूब बर्फ मा ठण्ड लागु चाहे जिबाडू मा!

ब्यो कु यन बिचार जब मैन अपनी जनानी थैं सुणाई!
टीपी वीँन झाडू -मुंगरा दौड़ी पिछने-2 जख मैं पायी!
कन शौक चढी त्वै बुढया पर जरा.. शर्म नि आई
अजौं भी त्वैन जुकुडी मा ब्यो की आग च लगांई!

नि देख दिन माँ सुपिन्या , बोलणी च जनानी!
दस बच्चो कु बुबा ह्वेगे .. कन हवे तेरी निखाणी!
मैं ही छौं तेरी छड़छड़ी बान्द देख मैं पर तांणी!
अपनी जनानी दगडा मा किले छै नजर घुमाणी!

तब खुल्या मेरा आँखा-कंदुड़ खाई मैन कसम!
तेरा दगडी रौलू सदानी बार बार.. जनम जनम

प्रकाश दा की कलम घंग्तोल की मेहनत

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